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कविता

उन्हीं दिनों

विमलेश त्रिपाठी


तब उसकी आँखों में अटके रहते थे
बसन्त के शुरुआती कोंपल
सर्द मौसम की नमी अशेष होती थी
पीले हृदय के रोएँदार जंगलों में

रोहिणी की आखिरी बूँदें
झरकर चुपचाप
मौसम की अँधेरी सुरंगों में लौट जाती थीं
देहरी पर खड़ा होता था एक पेड़
पेड़ पर बैठती थी एक चिड़िया
वही
जो चली गयी थी एक दिन दबे पंख
लौटने की असम्भव प्रतीक्षा की कूक
आँगन के अकेले ताख पर छोड़कर

शायद उन्हीं दिनों पहली बार
शरमायी थी वह शरमाने की तरह
शायद उन्हीं दिनों
रोती रही थी वह
हफ्तों किवाड़ों की ओट में

 


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